इस नाटक की कथा का सम्बन्ध एक बहुत प्राचीन स्मरणीय घटना से है। भारतवर्ष में यह एक प्राचीन परम्परा थी कि किसी क्षत्रिय राजा के द्वारा कोई ब्रह्महत्या का भयानक जनक्षय होने पर उसे अश्वमेघ यज्ञ करके पवित्र होना पड़ता था। रावण को मारने पर श्री रामचन्द्र ने तथा और बड़े-बड़े सम्राटों ने इस यज्ञ का अनुष्ठान करके पुण्य लाभ किया था। कलियुग के प्रारम्भ में पाण्डवों के बाद परीक्षित के पुत्र जनमेजय एक स्मरणीय शासक हो गये थे। महाभारत के शांति पर्व में लिखा हुआ मिलता है कि सम्राट् जन्मेजय से अकस्मात एक ब्रह्महत्या हो गई, जिस पर उन्हें प्रायश्चित स्वरूप अश्वमेध यज्ञ करना पड़ा।
नाग-जाति भारतवर्ष की प्राचीन जाति थी जिन्हें क्षत्रियों ने सरस्वती के तट से हटा खाण्डव वन भेज दिया वहाँ वह पाण्डु पुत्र अर्जुन के कारण नहीं रह पाये। खाण्डव-दाह के समय नागजाति के नेता तक्षक निकल भागे । महाभारत युद्ध के बाद उन्मत्त परीक्षित ने श्रृंगी ऋषि, ब्राह्मण का अपमान किया और तक्षक ने काश्यप आदि से मिलकर आर्य-सम्राट् परीक्षित की हत्या की। उन्हीं के पुत्र जन्मेजय को आर्य जाति के भक्त उत्तक ने जब यह रहस्य बताया कि उनके पिता परीक्षित की मृत्यु नाग जाति के नेता तक्षक की वजह से हुई है तो जनमेजय ने अश्वमेध यज्ञ से पहले नाग जाति को समाप्त करने के लिये नागयज्ञ करने की ठानी।
महाभारत- साम्राज्य की पुनर्योजना जनमेजय के प्रचण्ड विक्रम और दृढ शासन से हुई थीं। सदैव से लड़ने वाली इन दो जातियों में मेल-मिलाप हुआ, जिससे हजारों वर्षों तक आर्य साम्राज्य में भारतीय प्रजा फूलती फलती रही। बस इन्हीं घटनाओं के आधार पर इस नाटक की रचना हुई है।
जनमेजय का नागयज्ञ | Janmejay ka Nagyagy
Jayshankar Prasad