"गोपियों! इसमें सन्देह नहीं कि मै तुम्हारे नयनों का ध्रुवतारा हूँ, तुम्हारा जीवन सर्वस्व हूँ, किन्तु मैं, जो तुमसे दूर रहता हूँ, उसका भी कारण है। वह यही कि तुम निरन्तर मेरा ध्यान कर सको । शरीर से दूर रहने पर भी मन से तुम मेरी सान्निधि का अनुभव करो, अपना मन मेरे पास रक्खों क्योंकि स्त्रियों और अन्याय प्रेमियों का चित्त अपने परदेशी प्रियतम में जितना निश्चल भाव से लगा रहता है, उतना आँखों के सामने, पास रहने वाले प्रियतम में नहीं लगता । सम्पूर्ण मन मुझमें लगाकर जब तुम लोग मेरा स्मरण करोगी, तब सदा के लिये मुझे प्राप्त हो जाओंगी। कल्याणियों ! जिस समय मैंने वृन्दावन में शरदीय पूर्णिमा की रात्रि में रास क्रीड़ा की थी, उस समय जो गोपियाँ स्वजनों के रोक लेने से मेरे साथ रास विहार में सम्मिलित न हो सकीं, वे मेरी लीलाओं का स्मरण करने से ही मुझे प्राप्त हो गयी थीं। तुम्हे भी मै मिलूँगा अवश्य, निराश होने की कोई बात नहीं है। "
योगेश्वर श्रीकृष्ण | Yogeshwar Shree Krishan
Hari Singh