साहित्यकार की साहित्य-सृष्टि का मूल्यांकन तो अनेक आगत- अनागत युगों में हो सकता है, परन्तु उसके जीवन की कसौटी उसका अपना युग ही रहेगा।
पर यह कसौटी जितनी अकेली है, उतनी निर्भ्रान्त नहीं। देश-काल की सीमा में आबद्ध जीवन न इतना असंग होता है कि अपने परिवेश और परिवेशियों से उसका कोई सघर्ष न हो और न यह संघर्ष इतना तरल होता है कि उसके आघातों के चिह्न शेष न रहें।
एक कर्म विविध ही नहीं, विरोधी अनुभूतियाँ भी जगा सकता है। खेल का एक ही कर्म जीतने वाले के लिए सुखद और हारने वाले के लिए दुःखद अनुभूतियों का कारण बन जाता है।
जो हमें प्रिय है, वह हमारे हित के परिवेश में ही प्रिय है और जो अप्रिय है, वह हमारे अहित के परिवेश में ही अपनी स्थिति रखता है। यह अहित, प्रत्यक्ष कर्म से सूक्ष्म भाव जगत तक फैला रह सकता है। हमारे दर्शन, साहित्य आदि विविध साधनों से प्राप्त संस्कार, हमें अपने परिवेश के प्रति उदार बनाने का ही लक्ष्य रखते हैं। पर, मनुष्य का अहम प्रायः उन साधनों से विद्रोह करता रहता है।
अपने अग्रजों और सहयोगियों के सम्बन्ध में अपने आप को दूर रखकर कुछ कहना सहज नहीं होता। मैंने साहस तो किया है, पर ऐसे स्मरण के लिए आवश्यक निर्लिप्तता या असंगता मेरे लिए संभव नहीं है। मेरी दृष्टि के सीमित शीशे में वे जैसे दिखायी देते हैं, उससे वे बहुत उज्ज्वल और विशाल हैं, इसे मानकर पढ़ने वाले ही उनके कुछ झलक पा सकेंगे।
पथ के साथी | Path Ke Sathi
Author
Mahadevi Verma
Publisher
Lokbharti Prakashan
No. of Pages
90