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विश्व आदिवासी दिवस : संघर्ष, संस्कृति, और साहस की अद्वितीय कहानी



परिचय


हर साल 9 अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस मनाया जाता है, जिसका उद्देश्य आदिवासी समुदायों के अधिकारों की रक्षा करना और उनके सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित करना है। इस दिन को मान्यता देने का मुख्य उद्देश्य आदिवासियों के जीवन, उनकी संस्कृति, परंपराओं और उनके मौलिक अधिकारों के प्रति जागरूकता फैलाना है।


आदिवासी समुदायों की संस्कृति


भारत में कई आदिवासी समुदाय निवास करते हैं, जिनकी अपनी विशिष्ट भाषाएँ, परंपराएँ, और सांस्कृतिक धरोहर हैं। ये समुदाय प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व में विश्वास रखते हैं और उनकी जीवनशैली में प्रकृति का महत्वपूर्ण स्थान है। आदिवासी कला, संगीत, नृत्य, और हस्तशिल्प में भी अद्वितीयता है, जो हमें उनकी संस्कृति की गहराइयों में झाँकने का अवसर प्रदान करती है।


आदिवासी संघर्ष और चुनौतियाँ


हालांकि, आदिवासी समुदायों को आज भी अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। भूमि अधिकार, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएँ, और रोजगार के क्षेत्रों में वे अनेक समस्याओं का सामना कर रहे हैं। सामाजिक और आर्थिक विषमताओं के कारण उनके विकास में रुकावटें आती हैं। ऐसे में, विश्व आदिवासी दिवस हमें इन मुद्दों की ओर ध्यान आकर्षित करता है और समाधान की दिशा में कदम बढ़ाने का प्रोत्साहन देता है।


आदिवासी दिवस का महत्व


विश्व आदिवासी दिवस प्रतिवर्ष 9 अगस्त को मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 23 दिसंबर 1994 के संकल्प संख्या 49/214 द्वारा 9 अगस्त के दिन को "अंतर्राष्ट्रीय आदिवासी लोगों का दिवस" के रूप में मनाने का निर्णय लिया था। इस दिन को चुने जाने का कारण यह है कि संयुक्त राष्ट्र की पहल पर मूल निवासी आबादी पर पहला सम्मेलन 9 अगस्त 1982 को हुआ था। इस सम्मेलन में मूल निवासी (आदिवासी) आबादी के मानव अधिकारों के संवर्धन व संरक्षण हेतु संयुक्त राष्ट्र कार्य समूह की कार्यवाही का भी अंकन हुआ था।

संयुक्त राष्ट्र महासभा ने दिसंबर 1994 में यह निर्णय लिया कि आदिवासियों के अंतर्राष्ट्रीय दशक (1995-2004) के दौरान 9 अगस्त का दिन इस दिवस के रूप में मनाया जाए। 2004 में महासभा ने "ए डिकेड फॉर एक्शन एंड डिग्निटी" की थीम के साथ दूसरा आदिवासी अंतर्राष्ट्रीय दशक (2005-2015) मनाए जाने की घोषणा की।


भारत में आदिवासी आंदोलन


भारत के संदर्भ में आदिवासियों का योगदान 1771 से देखा जा सकता है, जब तिलका मांझी के नेतृत्व में आदिवासी एकजुट हुए और उन्होंने भू-राजस्व देने से इनकार किया। इसके बाद 1855 में आदिवासियों के नारे 'करो या मरो' और 'अंग्रेजों माटी छोड़ो' आए। 1855 में झारखंड के संथाल विद्रोहियों ने 'करो या मरो' का नारा बुलंद करते हुए 'अंग्रेजों हमारी माटी छोड़ो' आंदोलन किया।


पढ़ने के लिए सुझाई गई किताबें


  • "टंट्या भील" - सुभाष चन्द्र कुशवाहा यह किताब टंट्या भील के जीवन और संघर्षों को दर्शाती है। टंट्या भील के साहस और बुद्धिमत्ता की कहानियाँ प्रेरणादायक हैं।




  • "भील विद्रोह: संघर्ष के सवा सौ साल" - सुभाष चन्द्र कुशवाहा इस पुस्तक में भील समुदाय के संघर्षों का विस्तृत वर्णन है, जो 1800 से 1925 के बीच घटित हुए।



  • "भारत के आदिवासी" - डॉ. जनक सिंह मीना यह पुस्तक आदिवासी समाज की सांस्कृतिक धरोहर, सामाजिक संघर्षों, और उनके योगदान को प्रस्तुत करती है।



निष्कर्ष


विश्व आदिवासी दिवस हमें आदिवासी समुदायों के प्रति हमारी जिम्मेदारियों की याद दिलाता है। हमें उनके अधिकारों की रक्षा करने और उनकी संस्कृति को संरक्षित करने के लिए हर संभव प्रयास करना चाहिए। पुस्तकों के माध्यम से हम उनके जीवन को बेहतर समझ सकते हैं और उनकी समस्याओं के समाधान के लिए संवेदनशील हो सकते हैं।


इस विश्व आदिवासी दिवस पर, आइए हम आदिवासी समुदायों के संघर्षों को समझें, उनकी संस्कृति का सम्मान करें, और उनके अधिकारों की रक्षा के लिए संकल्पित हों।


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