मैं और मेरा, तू और तेरा यही माया है जिसने समस्त जीवों को वश में कर रखा है। इन्द्रियों के विषयों और जहाँ तक मन जाता है उन सबको भी माया ही समझना। इस माया के दो भेद हैं, विद्या एवं अविद्या अविद्या दृष्ट रूप एवं दोषयुक्त है जिसके लोभ में यह जीव संसार रूपी कुएँ में पड़ा रहता है। दूसरी विद्या है जो गुणों से युक्त है तथा वही जगत की रचना करती है, किन्तु वह ईश्वर से प्रेरित (आश्रय प्राप्त) है उसमें स्वयं की कोई शक्ति नहीं है। ज्ञान में मान दम्भ आदि एक भी दोष नहीं होता क्योंकि वह सबमें समान रूप से एक ब्रह्म ही देखता समझता है। हे तात! उसी को परम वैराग्यवान समझना चाहिए जो समस्त सिद्धियों एवं तीनों गुणों को तिनके समान त्याग चुका है। जो माया को, ईश्वर को और अपने स्वरूप को नहीं जानता, उसे जीव जानों और जो कर्मों के आधार पर बन्धन एवं मोक्ष प्रदाता है सबके परे और माया का प्रेरक है, वह ईश्वर है। इसी कारण उसे मायाधीश-मायापति एवं मायातीत कहते हैं।
धर्म के आचरण से वैराग्य, योग से ज्ञान तथा ज्ञान से मोक्ष प्राप्त होता है-ऐसा वेद कहते हैं, किन्तु तात! मैं तो मेरी भक्ति से ही प्रसन्न हो जाता हूँ, वही मुझे सर्वप्रिय है, वही भक्तों को भी प्रिय होती है। भक्ति स्वतंत्र होती है, उसे किसी अन्य की सहायता नहीं चाहिए, क्योंकि ज्ञान विज्ञान आदि तो उसके अधीन रहते हैं। हे तात! भक्ति अनुपम एवं सुख देने वाली होती है, किन्तु वह मिलती तभी है जब उस व्यक्ति पर संत प्रसन्न हो, अर्थात संत कृपा से ही भक्ति प्राप्त हो सकती है। हे लक्ष्मण! भक्ति का मार्ग बड़ा सुगम है, इसी कारण जीव मुझको सहज ही प्राप्त कर लेते हैं। भक्ति के साधनों में विप्रों के चरणों में प्रेम एवं आदर, वेदों
तुलसी के राम | Tulsi Ke Ram
Hari Singh