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लेखन को जीवन का पर्याय माननेवाली कृष्णा सोबती की क़लम से उतरा एक ऐसा उपन्यास जो सचमुच जिन्दगी का पर्याय है-जिन्दगीनामा'।

'जिन्दगीनामा' - जिसमें न कोई नायक। न कोई खलनायक। सिर्फ़ लोग और लोग और लोग जिन्दादिल । जाँबाज लोग जो हिन्दुस्तान की ड्योढ़ी पंचनद पर जमे, सदियों गाजी मरदों के लश्करों से भिड़ते रहे। फिर भी फ़सलें उगाते रहे। जी लेने की साँधी ललक पर जिन्दगियाँ लुटाते रहे।

'ज़िन्दगीनामा' का कालखंड इस शताब्दी के पहले मोड़ पर खुलता है। पीछे इतिहास की बेहिसाब तहें। बेशुमार ताक़तें। जमीन जो खेतिहर की है और नहीं है, वही ज़मीन शाहों की नहीं है मगर उनके हाथों में है। ज़मीन की मालिकी किसकी है? ज़मीन में खेती कौन करता है? जमीन का मामला कौन भरता है? मुजारे आसामियाँ इन्हें जकड़नों में जकड़े हुए शोषण के वे क़ानून जो लोगों को लोगों से अलग करते हैं। लोगों को लोगों में विभाजित करते हैं।

'ज़िन्दगीनामा' का कथानक खेतों की तरह फैला, सीधा-सादा और धरती से जुड़ा हुआ । 'ज़िन्दगीनामा' की मजलिसें भारतीय गाँव की उस जीवन्त परम्परा में हैं जहाँ भारतीय मानस का जीवन-दर्शन अपनी समग्रता में जीता चला जाता है।

'जिन्दगीनामा' - कथ्य और शिल्प का नया प्रतिमान, जिसमें कथ्य और शिल्प हथियार डालकर जिन्दगी को आँकने की कोशिश करते हैं। 'जिन्दगीनामा' के पन्नों में आपको बादशाह और फ़क़ीर, शहंशाह, दरवेश और किसान एक साथ खेतों की मुँडेरों पर खड़े मिलेंगे। सर्वसाधारण की वह भीड़ भी जो हर काल में, हर गाँव में, हर पीढ़ी को सजाए रखती है।

ज़िन्दगीनामा | Zindaginama

SKU: 9788126717422
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  • Krishna Sobti

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