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'ऋक्' पद ऋच् धातु से बना है। इसका अर्थ है - स्तुति करना। ऋग्वेद में स्तुति की प्रधानता है। अग्नि, इन्द्र, सूर्य, वायु, वरुण आदि देवताओं और ज्ञान की स्तुति ही इस सर्वाधिक प्राचीन वेद का लक्ष्य है। ऋग्वेद में 'सोमरस' के गुणों का व्यापक रूप से वर्णन किया गया है। यह सोम देवताओं को पुष्ट करता है, ताकि वे आसुरी शक्तियों को विनष्ट करने में सक्षम हों। ऋग्वेद में संपूर्ण जड़-चेतन सृष्टि के सुख और कल्याण की कामना की गई है। ऋषियों का दृढ़ विश्वास है कि ईश्वर सभी की सदैव रक्षा करता है- -

इन्द्रेहि मत्स्यन्धसो विश्वेभिः सोमपर्वभिः । महां अभिष्टिरोजसा ॥

अर्थात् ईश्वर (इन्द्र) संसार के अणु-परमाणु में व्याप्त सभी की उसी प्रकार रक्षा करता है, जिस प्रकार सूर्य सभी लोकों में सबसे बड़ा होने पर भी सभी पदार्थों को प्रकाश

देता है। धर्म और अध्यात्म से जुड़े प्रत्येक प्रश्न का समाधान है ऋग्वेद में.!

'यजुः' शब्द यज् धातु से बना है, जिसका अर्थ देवपूजा, संगति और दानादि के संदर्भ में किया जाता है। इस प्रकार यजुर्वेद को 'यजुओं का वेद' के नाम से भी जाना जाता है, अर्थात् जिन मंत्रों द्वारा यज्ञ कर्म किए जाते हैं, इस वेद में उन्हीं का समावेश है। यह वेद यज्ञ- कर्मों की उपयुक्त व्यावहारिक विधि का व्याख्यान करता है। क्रिया और गति की विवेचना तथा उनकी प्रस्तुति करने में यह अद्वितीय है।

यज्ञ-कर्म करते हुए, प्राणिमात्र की शांति कामना करते हुए ऋषि सभी के साथ मित्रवत् व्यवहार करने की भी कामना करते हैं-

मित्रस्याऽहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे ॥

अर्थात् महात्मा वही है, जो अपनी आत्मा के समान् सभी प्राणियों को मानता है, किसी से द्वेष नहीं करता तथा मित्र के समान सभी का सत्कार करता है।

उपासना का वर्णन है इस वेद में। 'साम' में 'सा' विद्या को कहा गया है और 'अम' नाम है कर्म का । 'सा' संकेत करता है सर्वशक्तिमान परमात्मा की ओर, जबकि 'अम' का संकेतार्थ 'जीव' है। साम मंत्रों में गेय पक्ष की प्रधानता है, इसलिए इसके गान से श्रद्धा-समर्पण की धारा उपासक के हृदय में सहज रूप से प्रवाहित हो जाती है - संगीत की स्वर लहरियों से कैसे रोम-रोम तरंगित हो उठता है, इसका अनुभव प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में अवश्य होता है। इस वेद की ऋचाएं गान की दृष्टि से नपी-तुली हैं, इसीलिए शब्द, भाव और स्वर के समन्वय की दृष्टि से इसे मंत्रों के 'प्राणतत्व' के रूप में स्वीकार किया जाता है।

मित्रं वयं हवामहे वरुणं सोमपीयते

या जाता पूतदक्षसा ॥

अर्थात् हम याज्ञिक लोग सोमपान के लिए 'प्राण' और 'अपान' को पुकारते हैं, जो सोम के सेवन से पवित्र बल से युक्त हुए हैं।

अथर्ववेद को वैदिक साहित्य में 'ब्रह्मवेद', 'भैषज्यवेद' और 'अथर्वागिरस' नाम से भी पुकारा जाता है। अथर्वा और अंगिरस नामक ऋषि इस वेद की ऋचाओं के द्रष्टा हैं। अथर्वा ऋषि ने जिन ऋचाओं का साक्षात्कार किया, वे अध्यात्मपरक, सुखकारक, आत्मिक उत्थान करने वाली तथा जीवन को मंगल से परिपूर्ण करने वाली हैं। ये ऋचाएं सृजनात्मक हैं। अंगिरस ऋषि द्वारा द्रष्ट ऋचाएं संहारात्मक हैं। इनमें शत्रु नाश, जादू-टोना, मारण, वशीकरण आदि प्रयोगों की चर्चा है।

इस प्रकार अथर्ववेद में जहां एक ओर मंत्र-तंत्र द्वारा साधना- उपासना करते हुए अध्यात्म को साधा गया है, वहीं दुख-दारिद्र्य, शाप-ताप तथा प्रेत बाधाओं से निवृत्ति के उपायों को भी 'सुझाया गया है।

इस वेद की उपयोगिता ने ही प्रारंभिक विरोधों के बाद वेदों में चौथा स्थान प्राप्त किया। वेदत्रयी को मानने वाले लोग अब इसे चौथे वेद के रूप में प्रतिष्ठा और सम्मान देते हैं।

उद्यते नमः उदायते नमः उदिताय नमः ।

विराजे नमः स्वराजे नमः सम्राजे नमः ॥

अर्थात् उदय होते हुए परमात्मा को नमस्कार है, ऊंचे उठते हुए, परमात्मा को नमस्कार है, उदय हो चुके परमात्मा को नमस्कार है, विविध राजाओं को नमस्कार है, अपने आपको नमस्कार है, राजराजेश्वर सम्राट् को नमस्कार है।

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