कॉलेज की हर खिड़की कब्रिस्तान में खुलती है। कॉलेज के लोगों के अभ्यास पड़ गया। अब कब्रें न तो उदास करती हैं न भयभीत । ग्यारह साल पहले जग वे आयी आयी थी, सक्सेना बहनजी को कब्रें दिखना मनहूस लगता था। वे खिड़कियाँ बन्द रख कर पढ़ाती पर तब मुश्किल यह थी कि श्यामपट पर लिखना दूभर हो जाता। कमरे बड़े थे पर उनमें रोशनी के नाम पर फ्यूज्ड बल्ब लटके रहते ।
बड़ी बहनजी से कहने पर समस्या का कोई हल नहीं निकलता। बड़ी बहनजी पंचम स्वर में चिल्लाती हैं, “अभी उस दिन तो सब क्लासों में बल्ब लगवाया था, कहाँ गया। ए बिरजू, शकुन, ननकी कहाँ गये सब !"
आज सबसे पूछा जाएगा। सबकी ऐसी की तैसी होगी। इससे बल्ब नये नहीं आ जाएँगे पर बड़ी बहनजी के हाथ सबको कसने का नायाब मौका आ जाएगा।
आज दीवारों पर जाले भी लटकते मिल जाएँगे। डेस्कों पर धूल, मटकों पर काई, लैब की सफाई, सबका मुआयना होगा।
क्लास में रखे डस्टर का भी यही हाल है। कितना भी सँभाल कर रखा जाये, मौके पर डस्टर मिलता ही नहीं। टीचरों ने इन सब मुश्किलों का हल अपने स्तर पर कर लिया है। वे श्यामपट पर खाली जगह का इस्तेमाल कर ओ वैसा ही छोड़ देती हैं। हिन्दी, संस्कृत, अँग्रेजी की गड्डमड्ड इबारत कुछ इस तरह बनती है 'तू दयानि दीन हों, विद्यायाश्च फलं ज्ञानं विनयस्य शेक्सपीरियन सॉनेट.....
- पुस्तक से
अंधेरे में ताला | Andhere Me Tala
Mamta Kalia