दिलीप पाण्डे, चंचल शर्मा, रोहित साकुनिया का यह साझा उपन्यास एक ऐसी कहानी है जिसकी नींव इतनी मज़बूती के साथ रखी गई है कि पढ़ने वाले के कानों में तलवार और सियासत का हैरान कर देने वाला शोर गूँजता है। यह एक असाधारण उपन्यास है जिसे पढ़ते हुए लेखक की दिमाग़ी कसरत, या कहें कि कल्पना करने की क्षमता का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। इस उपन्यास की बुनावट तलवार के मयान जैसी है जिसमें न कुछ अतिरिक्त है और न कुछ कम। इसे पढ़ते हुए पाठक के मन में एक काल्पनिक दुनिया का निर्माण होता है जिसमें घोड़ों की टापों से लेकर हवा को चीरते भालों-तलवारों तक का शोर सुनाई देता है, जिसमें एक तरफ़ रिश्तों में सियासत है तो दूसरी तरफ़ उसूलों पर मर-मिट जाने का दृश्य, जिसमें मुहब्बत के गुलाब की ख़ुशबू भी है और नफ़रत की सियासी गंध भी, जिसमें कहीं मासूमों की चीख़ सुनाई देती है तो कहीं डूबते सूरज-सा सन्नाटा।
नौशेरा से जुड़े क़िस्सों में यह उपन्यास एक नया क़िस्सा गढ़ने का काम करता है। किस तरह अपनी-अपनी क़ौम और अपने-अपने क़बीलों के वर्चस्व की लड़ाई में दो सल्तनतें सही और ग़लत के मायने बदल देती हैं, इस उपन्यास में देखा जा सकता है। दोनों ओर शूरवीरों की हुँकारें बिजली की तरह गरजती हुई सुनी जा सकती हैं। शब्दों से कहानी बनने तक में जो कोलाहल इस उपन्यास से उठता है, यही इसकी सफलता है।
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