व्यक्ति तरह-तरह के वातावरण से ली गई हवाओं के खून तक में संचारित होने से वो बनता है जो वो बन जाता है। हमारा दौर, पहले के तमाम दौरों की तरह, मिश्रित और बनावटी वास्तविकताओं का दौर है। बिहार- यूपी जैसे राज्यों से बाहर आकर बेहतर भविष्य तलाशते विस्थापितों के अंदर कई दुनिया, कई संघर्ष होते हैं। सुखमय वर्तमान अपनी विस्थापित जड़ों को नई मिट्टी में सींच तो रहा है, लेकिन वो पुरानी नमः तासीर नहीं मिलती। दो दुनियाओं के बीच फँसा हमारा जीवन न तो दिल्ली का हो पाता है, न बेगूसराय के रतनमन बभनगामा गाँव का। वो बहुत कुछ करना चाहता है, लेकिन सब भीतर ही कहीं कैद रह जाता है। वही अंतर्द्वद्व इस कहानी के मुख्य पात्र रवि का भी है। उसके अवचेतन में कोई नोचता है, खरोंचता है, 'चिल्लाता है..... लेकिन उसके चेतन का विस्तार, उसके वर्तमान की चमक उस छटपटाहट को वे आवाज़ बनाकर दबा देते हैं। रवि अपनी अपूर्णताओं को जीते हुए, उनसे लड़ते हुए, बचपन में पूछे गए एक प्रश्न के उत्तर का पीछा करता रहता है कि उसे क्या बनना है। अपने वर्तमान में सामाजिक दृष्टि से 'सफल' रवि का अपने अवचेतन के सामने आने पर, खुद को लंबे रास्ते के दो छोरों को तौलते हुए पाना, और तय करना कि घर लौहूँ, या घर को लौट जाऊँ, ही 'घरवापसी' की आत्मा है।
घर वापसी | Ghar Vapasi
Ajeet Bharati