लम्बे समय तक 'तपोभूमि' उपन्यास अप्रकाशित रहा है। सन् 32 के शुरू में जैनेन्द्र ने इसकी रचना प्रारम्भ की थी। मुद्रित पुस्तक के 89 पृष्ठ तक वह रच पाये थे कि स्वाधीनता आन्दोलन की सक्रियता के बरक्स उन्हें मुल्तान जेल भेज दिया गया। उपन्यास अधूरा वहीं छूट गया। उसके पश्चात् उनके मित्र लेखक-प्रकाशक ऋषभचरण जैन ने इसे आगे बढ़ाया। इस तरह यह दो लेखकों की मिली-जुली रचना है। कई तरह की सक्रियताओं व जिन्दगी की गहमा-गहमियों की वजह से भी उन्होंने स्वभावतः उपन्यास के आगे के क्रम पर आपत्ति नहीं उठायी।
कालावधि की दृष्टि से जैनेन्द्र के सर्वप्रथम उपन्यास 'परख' सन् 29 में प्रकाशित व तभी पुरस्कृत और बेहद विवादास्पद उपन्यास 'सुनीता' सन 35 में प्रकाशित-के बीच की यह रचना है। सुधी पाठक ही तय करें कि जैनेन्द्र के रचे अंश का उनकी रचना व सृजन-गति के कालक्रम में इसकी क्या सार्थकता है? एक ही उपन्यास दो कथाकारों द्वारा रचा यह सम्भवतः प्रथम ही है। इस दृष्टि से इस उपन्यास का ऐतिहासिक महत्त्व है।
तपोभूमि । Tapobhoomi
Jainendra Kumar