आधुनिक समाज के हाशियों की उपेक्षित उदासियों का अन्वेषण करनेवाले भगवानदास मोरवाल ने इस उपन्यास में मुख्यधारा की खबर ली है। वह मुख्यधारा जो किस्म-किस्म की अमानवीय और असामाजिक गतिविधियों से उस ढाँचे का निर्माण करती है जिसे हम समाज के रूप में देखते जानते हैं।
उपन्यास का विषय गैर-सरकारी संगठनों की भीतरी दुनिया है, जहाँ देश के लोगों के दुख दुकानों पर बिक्री के लिए रखी चीजों की तरह बेचे खरीदे जाते हैं, और सामाजिक- आर्थिक विकास की गम्भीर भंगिमाएँ पलक झपकते बैंक बैलेंस में बदल जाती है।
यह उपन्यास बताता है कि आजादी के बाद वैचारिक सामाजिक प्रतिबद्धताओं के सत्त्व का क्षरण कितनी तेजी से हुआ है, और आज वह कितने समाजघाती रूप में हमारे बीच सक्रिय है। कल जो लोग समाज के लिए अपना सबकुछ न्यौछावर करने की उदात्तता से दीप्त थे, कब और कैसे पूरे समाज उसके पवित्र विचारों, विश्वासों, प्रतीकों और अवधारणाओं को अपने हित के लिए इस्तेमाल करने लगे और वह भी इतने निर्लन्य आत्मविश्वास के साथ इस पहेली को खोलना शायद आज के सबसे जरूरी कामों में से एक है। यह उपन्यास अपने विवरणों से हमें इस जरूरत को और गहराई से महसूस कराता है।
उपन्यास के पात्र अपने स्वार्थों की नग्नता में जिस तरह यहाँ प्रकट हुए हैं. वह डरावना है। पैसा कमाने के तर्क को वे जहाँ तक ले जा चुके हैं, वह एक खौफनाक जगह है-सचमुच का नरक, और जिस भविष्य का संकेत यहाँ से मिलता है, वह वीभत्स है।
नरक मसीहा | Narak Masiha
Bhagvandas Morwal