विदेशी दासता से मुक्ति भारत की गरीब जनता के लिए अपने नेताओं द्वारा छले जाने की शुरुआत थी। यह एक विडम्बना ही थी कि छलने के सबसे ज्यादा तरीके नयी सत्ता ने उससे सीखे जिसने राजनीति में चरित्र का महत्त्व स्थापित करना चाहा था।
बकरी महज एक व्यंग्य नाटक नहीं, हमारी स्वाधीनता की तलछट का चित्र है-वह तलछट जो समय बीतने के साथ गहरी होती चली गयी है, और अब भी चुनौती दे रही है। नाटक के संगीत-नृत्य में पाठक मग्न रहता है और जटिल प्रतीक सहजता से खुलने लगते हैं। राजनीतिक ढाँचे की पोल-पट्टी को न केवल उधेड़कर दिखाया गया है, बल्कि उस समाज का विकृत चेहरा भी उभारा गया है जो आजादी के दो दशकों के बाद बना था।
सर्वेश्वरदयाल सक्सेना का यह नाटक नाट्य संवेदना की ताजगी और राजनीतिक व्यंग्य की मार के कारण आज के रंगमंच की एक मुख्य उपलब्धि माना गया है। स्कूलों-कॉलेजों, गली-कूचों और गाँवों-कस्बों में खुले आकाश के नीचे लगातार खेला जा रहा यह नाटक हिन्दी का सर्वाधिक लोकप्रिय नाटक है। इस नाटक ने हिन्दी नाटक और रंगमंच को नयी जमीन दी है।
बकरी | Bakaree
Author
Sarveshwardayal Saxena
Publisher
Vani Prakashan
No. of Pages
63