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राजस्थानी चित्रकला और हिन्दी कृष्ण काव्य

प्रस्तुत ग्रंथ काव्य और चित्रकला के पारस्परिक संबंधों के अध्ययन की प्राथमिक पहल है। अनवरत बारह वर्ष के कठोर परिश्रम तथा भारत में विभिन्न संग्रहालयों- एवं सांस्कृतिक स्थलों के अध्ययन के फलस्वरूप काव्य और चित्रकला के अध्ययन की समस्याओं को लेखक ने एक नवीन परिप्रेक्ष्य दिया है।

आन्तरिक अभिव्यक्ति काव्य में शब्दों के माध्यम से तथा चित्रकला में रंग और रेखाओं के माध्यम से उभरती है। काव्य और चित्रकला में अभिव्यक्ति का अंतर है, शेष कला की आत्मा एक है। 'काव्य बोलता हुआ चित्र और चित्र मूक काव्य' ।

भारतीय कला एक प्रकार से साहित्य की ही मार्मिक व्याख्या है। समय-समय पर संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी, राजस्थानी आदि ग्रंथों के चित्रों के माध्यम से व्याख्या होती रही है। इन सचित्र ग्रंथों, लघुचित्रों, पटचित्रों, भित्तिचित्रों में काव्य और चित्रकला की अनेक समस्याओं का जो राज छिपा है उसे लेखक ने उजागर करने का प्रयत्न किया है। वास्तव में तो मध्यकालीन साहित्य और कला को बिना इस प्रकार के तुलनात्मक अध्ययन से पूरी तरह समझा ही नहीं जा सकता।

इस ग्रंथ में एक ओर राजस्थानी चित्रकला की विस्तृत समीक्षा की गई है और दूसरी ओर सचित्र ग्रंथों के आधार पर कृष्ण काव्य को नवीन आयाम दिया है। अतः यह ग्रंथ चित्रकला के अध्ययन के लिए भी उतना ही उपयोगी है जितना काव्य के लिए।

राजस्थानी चित्रकला और हिन्दी कृष्णकाव्य | Rajasthani Chitrakala or Krishnakavya

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  • Dr. Jaysingh Neeraj

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