लेडी ऑन द मून' प्रबोधकुमार गोविल की आत्मकथा का दूसरा भाग है, जिसमें ख्यात साहित्यकार ने अपनी आयु के इक्कीसवें वर्ष से लेकर लगभग उम्र के चार दशक पूरे होने तक के अपनी स्मृतियों के चित्रण को आधार बनाया है।
इससे पहले प्रबोधकुमार गोविल की आत्मकथा का पहला भाग 'इक्तिरार' आ चुका है, जिसे उनकी बेबाकी, पठनीयता और रोचक वर्णन शैली के चलते काफी पसंद किया गया। जल्दबाजी उलझन या बेकरारी को
इज्तिरार कहा जाता है। किताब के शीर्षक के रूप में एक अप्रचलित और कठिन शब्द को रखने के सवाल पर गोविल कहते हैं- ये मेरी आपबीती है, इसमें कुछ भी सरल या समझ में आने वाला नहीं था, फ़िर कैसे मैं इसे समझ में आने वाले आसान से शब्द के माध्यम से बयाँ कर हूँ? और क्यों कर हूँ।
इस दूसरे भाग 'लेडी ऑन द मून' के बारे में आत्मकथाकार का कहना है कि ये तो आसान सी, सबको समझ में आनेवाली बात है। इक्कीसवाँ साल आते- आते सब प्यार करते हैं। प्यार होता है तो चाँद-तारे भी दिखते हैं... कभी - कभी तो दिन में भी।
और अगर चाँद को गौर से देखा
जाए तो उस पर बैठकर चरखा कातती हुई औरत भी दिखती है। पैदा तो सब होते ही हैं, वक्त आने
पर दुनिया से चले भी जाते हैं।
लेकिन चाँद पर बैठी ये औरत कहीं नहीं जाती। जाने कब से यहीं है और जाने कब तक रहेगी।
हाँ, अगर आपकी जिज्ञासा ये जानने में है कि चंद्रमा पर बैठी ये औरत उपन्यासकार- कथाकार प्रबोधकुमार गोविल की आत्मकथा का शीर्षक कैसे हो सकती है, तो इस बारे में लेखक का कहना है:
'चलिए तलाश करते हैं कि ऐसा
क्यों हुआ ?
मैं लिखता जाता हूँ, आप पढ़ते जाइए!'
लेडी ऑन द मून । Lady on the Moon
Prabodh Kumar Govil