कालिदास द्वारा विरचित विक्रमोर्वशीय मालविकाग्निमित्र से उच्चतर श्रेणी का नाटक है। आशीर्वादात्मक मंगलाचरण के साथ इसका प्रारम्भ होता है। स्वयं सूत्रधार इसे नाटक न कहकर त्रोटक के रूप में उपस्थित करते हैं।
यथा— सूत्रधार :- मोरिष ! परिषदेषा पूर्वेषां कवीनां दृष्टिरसप्रबन्धा । अहमस्यां कालिदासग्रथितवस्तुना विक्रमोर्वशीयम् नाम नवेन जोटकेन उपस्थास्ये ।
अर्थात् में इस परिषद् के समक्ष महाकवि कालिदास विरचित 'विक्रमोर्वशीयम्' नामक नूतन त्रोटक लेकर उपस्थित होने वाला हूँ।
इस 'त्रोटक' की कथा का स्रोत ऋग्वेद, शतपथ ब्राह्मण तथा मत्स्यपुराण में देखा जा सकता है। 'मालविकाग्निमित्र' का इतिवृत्त ऐतिहासिक है किन्तु 'विक्रमोर्वशीयम्' का पौराणिक । पुरूरवा तथा उर्वशी के प्रेम से सम्बद्ध इतिवृत्त को लेकर कालिदास ने इस पाँच अंक के त्रोटक का निबन्धन किया है।
विक्रमोर्वशीयम् | Vikramorvashiyam
Aacharya Umesh Shashtri