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तुलसीदासजी ने जिस सन्दर्भ में भी यह पंक्ति लिखी हो, जो लिखने जा रही हूँ, उस सन्दर्भ में मुझे यह एकदम सटीक लगती है- सुनहु तात यह अकथ कहानी

समुझल बनत, न जाय बखानी। अभी कुछ ही दिन पूर्व मेरी एक प्रशंसिका पाठिका ने मुझसे अनुरोध किया था कि मैं अपनी आत्मकथा लिखूं, 'समय आ गया है शिवानीजी, कि आप अपने सुदीर्घ जीवन के अनुभवों का निचोड़ हमें भी दें, जिससे हम कुछ सीख सकें।'

पर यह क्या इतना सहज है? जीवन के कटु अनुभवों को निचोड़ने लगी, तो न जाने कितने दबे नासूर फिर से रिसने लगेंगे; और फिर एक बात और भी है। मेरी यह दृढ़ धारणा है कि कोई भी व्यक्ति भले ही वह अपने अन्तर्मन के लौह कपाट बड़े औदार्य से खोल अपनी आत्मकथा लिखने में पूरी ईमानदारी उड़ेल दे, एक-न-एक ऐसा कक्ष अपने लिए बचा ही लेता है, जिसकी चिलमन उठा ताक-झाँक करने की धृष्टता कोई न कर सके। सड़ी रूढ़ियों और विषाक्त परम्पराओं से जूझते-जूझते जर्जर जीवन आसन्न मृत्यु के भय से इतना क्लांत हो जाता है कि अतीत को एक बार फिर खींच दूसरों को दिखाने की न इच्छा ही शेष रह जाती है, न अवकाश

सुनहु तात यह अकथ कहानी | Sunahu Taat Yah Akath Kahani

SKU: 9788183611596
₹150.00 Regular Price
₹135.00Sale Price
Out of Stock
  • Shivani

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