जिन्दगी में कभी-कभी ऐसा दौर आता है जब तकलीफ़ गुनगुनाहट के रास्ते बाहर आना चाहती है। उसमें फँसकर गमे-जानाँ और गमे दौरों तक एक हो जाते हैं। ये ग़ज़लें दरअसल ऐसे ही एक दौर की देन हैं।
यहाँ मैं साफ़ कर दूँ कि ग़जल मुझ पर नाजिल नहीं हुई। मैं पिछले पच्चीस वर्षों से इसे सुनता और पसन्द करता आया हूँ और मैंने कभी चोरी-छिपे इसमें हाथ भी आजमाया है। लेकिन गजल लिखने या कहने के पीछे एक जिज्ञासा अक्सर मुझे तंग करती रही है और वह है कि भारतीय कवियों में सबसे प्रखर अनुभूति के कवि मिर्ज़ा ग़ालिब ने अपनी पीड़ा की अभिव्यक्ति के लिए ग़जल का माध्यम ही 'क्यों चुना? और अगर ग़ज़ल के माध्यम से ग़ालिब अपनी निजी तकलीफ़ को इतना सार्वजनिक बना सकते हैं तो मेरी दुहरी तकलीफ़ (जो व्यक्तिगत भी है और सामाजिक भी) इस माध्यम के सहारे एक अपेक्षाकृत व्यापक पाठक वर्ग तक क्यों नहीं पहुँच सकती ?
मुझे अपने बारे में कभी मुगालते नहीं रहे। मैं मानता हूँ, मैं ग़ालिब नहीं हूँ। उस प्रतिभा का शतांश भी शायद मुझमें नहीं है। लेकिन मैं यह नहीं मानता कि मेरी तकलीफ़ गालिब से कम है या मैंने उसे कम • शिद्दत से महसूस किया है। हो सकता है, अपनी-अपनी पीड़ा को लेकर हर आदमी को यह वहम होता हो... लेकिन इतिहास मुझसे जुड़ी हुई मेरे समय की तकलीफ़ का गवाह खुद है। बस... अनुभूति की इसी जरा-सी पूँजी के सहारे मैं उस्तादों और महारथियों के अखाड़े में उतर पड़ा।
साये में धूप । Saaye Mein Dhoop
Dushyant Kumar